मंगलवार, 5 सितंबर 2017

गुरु या शिक्षक - कर्तव्य तो समान ही है



गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वराः
गुरुरसाक्षात परब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नमः।।
गुरु ब्रह्मा अर्थात सर्जक, विष्णु अर्थात पालक एवं शिव अर्थात दुर्गुणों के संहारक हैं । ऐसे गुरु जो साक्षात परब्रम्ह स्वरुप है उन्हें नमन है अतः गुरु का स्थान देवताओं के समतुल्य और कहीं-कहीं पर उनसे भी ऊपर माना गया है।

गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पाय
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताए।

अर्थात गुरु व ईश्वर दोनों खड़े हैं। लेकिन गुरु ही महान है क्योंकि उसने ही हमें ईश्वर के विषय में ज्ञान दिया होता है। 'गु' का मतलब अंधेरा होता है और 'रु' का मतलब प्रकाश होता है । गुरु ही वह इंसान है जो हमें अंधकार से प्रकाश की ओर का पथ दिखाता हैं।,यानी अज्ञानता से ज्ञान की तरफ ले जाता है।
अब जरूरी नही की यह ज्ञान की पूंजी बाटने का काम संगीत से जुड़ा गुरु ही करता है। बल्कि स्कूल शिक्षण से जुड़ा शिक्षक भी करता है। किसी भी शिक्षक में या गुरु में कुछ गुणों का होना अत्यंत आवश्यक है ताकि वह अपने छात्र या शिष्य को उचित शिक्षा प्रदान कर सके। जिस तरह संगीत शिक्षा के क्षेत्र में गुरु एवं शिष्य के भावनात्मक एवं क्रियात्मक मिलन को परम लक्ष्य माना गया है। संगीत सदैव से ही गुरु मुख से ग्रहण की जाने वाली विद्या रही है। उसी तरह शिक्षकों का भी अपने छात्र को मानसिक रूप से तेज बनाना होता है। शिक्षक की भूमिका एक सीढ़ी की तरह होती है जिससे छात्र अपने जीवन में ऊंचाइयों को छूते हैं। शिक्षक का कार्य चरित्र निर्माण और आत्मविश्वास निर्माण का है। शिक्षक या गुरु का काम है और अपने छात्र या शिष्य को गुणी बनाना और अच्छे गुरु या शिक्षक में कुछ गुण होने चाहिए। शिक्षा प्रदान करने की प्रणाली और प्रभावशाली हो सके।
शास्त्र के अनुसार एक आदर्श गुरु का गुण है ।
1.स्मृति अर्थात memory
2.मति अर्थात Knowledge
3.मेधा अर्थात Intelligence
4.उहा  अर्थात Reasonablenessएवं
5.अपोह अर्थात Determination

                      इन सबके साथ -साथ गुरु को आस्तिक, शास्त्रज्ञ, सात्विक, सुसंस्कृत, मर्यादित, दानी, सहृदय, अनुशासित और उदार होना चाहिए।
शास्त्र के अनुसार पांच प्रकार की शिक्षण प्रणालियां बताई गई है
1.मत्स्य तंत्र
2.कुर्मा तंत्र
3.भ्रमरा तंत्र
4.मर्जर तंत्र
5.मर्कट तंत्र
1.मत्स्य तंत्र - जिस प्रकार मछली केवल अपने दृष्टि के द्वारा अपने अंडों को देती है उसी प्रकार इस तंत्र के अंतर्गत गुरु भी अपने व्यवहार एवं हावभाव के द्वारा शिष्य में अपनी संपूर्ण विद्या को प्रवाहित करता है और उसे स्वयं अपनी मेहनत द्वारा निकालने का अवसर देता है।
2.कूर्म तंत्र-जिस प्रकार कछुआ अपने अंडे को जमीन पर स्वतः विकसित होने के लिए छोड़ देता है। और पानी में रहकर भी उनके विषय में सोचता रहता है। उसी प्रकार इस तंत्र के अंतर्गत गुरु अपने शिष्य को विद्या के सभी पक्षों पर शिक्षित करता है,और एक दूरी बनाए रखता है। लेकिन वह शिष्य को बराबर अनुभूति कराता रहता है। कि शिष्य उसके लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
3.भ्रमर तंत्र - जिस प्रकार भंवरा एक कीड़े को लगातार डंक मारने जैसा व्यवहार करता है। लेकिन इस दौरान लगातार स्पर्श करने की प्रक्रिया में वह कीड़ा स्वयं एक भंवरा में परिवर्तित हो जाता है, उसी प्रकार इस तंत्र के अंतर्गत गुरु अपने शिष्य पर लगातार अपनी दृष्टि रखकर शिष्य को सोचने, सीखने, ज्ञान प्राप्त करके अपनी सामर्थ्य और गुणों का विकास करने योग्य बनाता है।
4.मर्जर तंत्र - जिस प्रकार बिल्ली अपने बच्चों को बड़ा होने तक अपने पास रखकर अपने सारे गुण उसे देती है। उसी प्रकार इस तंत्र के अंतर्गत गुरु अपने पास रखकर अपना पूरा ज्ञान उसे देकर परिपक्व होने पर उसे विकसित होने के लिए छोड़ देता है।
5.मर्कट तंत्र- जिस प्रकार वानर अपने बच्चों को अपनी छाती से चिपकाये रहती है, और उसे जब और जितनी आवश्यकता होती है उतना दूध पिलाती है, उसी प्रकार इस तंत्र के अंतर्गत गुरु अपने शिष्य को अपने पास जब और जितनी आवश्यकता होती है शिक्षा प्रदान करता है।

   

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